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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: जमदग्निर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡सा꣢व्य꣣ꣳशु꣡र्मदा꣢꣯या꣣प्सु꣡ दक्षो꣢꣯ गिरि꣣ष्ठाः꣢ । श्ये꣣नो꣢꣫ न योनि꣣मा꣡स꣢दत् ॥१००८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

असाव्यꣳशुर्मदायाप्सु दक्षो गिरिष्ठाः । श्येनो न योनिमासदत् ॥१००८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡सा꣢꣯वि । अ꣣ꣳशुः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । अ꣡प्सु꣢ । द꣡क्षः꣢꣯ । गि꣣रि꣢ष्ठाः । गि꣣रि । स्थाः꣢ । श्ये꣣नः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । आ । अ꣣सदत् ॥१००८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1008 | (कौथोम) 3 » 2 » 16 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 6 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४७३ क्रमाङ्क पर आनन्दरस के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ सोम ओषधि के रस का तथा ज्ञानरस का विषय वर्णित किया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—सोमौषधि के रस के विषय में। (गिरिष्ठाः) पर्वतों पर उत्पन्न, (दक्षः) बलदायक (अंशुः) सोम ओषधि का रस (मदाय) पीने पर उत्साहवर्धन के लिए (अप्सु) जलों में (असावि) निचोड़ा गया है। (श्येनः न योनिम्) बाज पक्षी जैसे अपने आवास वृक्ष पर बैठता है, वैसे ही यह सोम ओषधि का रस (योनिम्) द्रोणकलश में (आसदत्) आकर स्थित हो गया है ॥ द्वितीय—ज्ञानरस के विषय में। (गिरिष्ठाः) वेदवाणी में स्थित, (दक्षः) आत्मबल देनेवाला (अंशुः) ज्ञानरस (मदाय) आनन्द प्राप्त कराने के लिए (अप्सु) विद्यार्थियों के कर्मों में (असावि) अभिषुत किया जाता है। (श्येनः न योनिम्) बाज पक्षी जैसे अपने आवास-वृक्ष पर बैठता है, वैसे ही यह ज्ञानरस (योनिम्) जीवात्मरूप सदन में (आसदत्) आकर स्थित होता है ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार तथा श्लेष है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

कर्मरहित अकेला ज्ञान नीरस और निष्फल होता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७३ क्रमाङ्के आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र सोमौषधिरसविषयो ज्ञानरसविषयश्च वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—सोमौषधिरसविषये। (गिरिष्ठाः) पर्वतेषु उत्पन्नः, (दक्षः) बलप्रदः (अंशुः) सोमौषधिरसः (मदाय) पाने सति उत्साहवर्धनाय (अप्सु) उदकेषु (असावि) अभिषुतोऽस्ति। (श्येनः न योनिम्) श्येनपक्षी यथा स्वनीडम् आगत्य स्थितो भवति, तथा एष सोमौषधिरसः (योनिम्) द्रोणकलशम् (आसदत्) आगत्य स्थितोऽस्ति ॥ द्वितीयः—ज्ञानरसविषये। (गिरिष्ठाः) वेदवाचि स्थितः, (दक्षः) आत्मबलप्रदः (अंशुः) ज्ञानरसः (मदाय) आनन्दप्रापणाय (अप्सु) विद्यार्थिनां कर्मसु (असावि) आचार्येण अभिषूयते। (श्येनः न योनिम्) श्येनपक्षी यथा स्वनीडम् आगत्य स्थितो भवति तथा एष ज्ञानरसः (योनिम्) जीवात्मरूपं सदनम् (आसदत्) आगत्य स्थितो भवति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च ॥१॥

भावार्थभाषाः -

कर्मरहितं केवलं ज्ञानं नीरसं निष्फलं च भवति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।४, साम० ४७३।